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इतिहास

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का इतिहास

सम्मेलन की स्थापना : बीसवीं सदी का आरंभ, भारत के लिये एक नये युग का संकेत लेकर आया था। सदियों से दासता से संत्रस्त भारत की आत्मा, बेड़ियों से मुक्ति के लिये अपना मन-प्राण लगाने को तत्पर हुई थी। अंतर की खलबलाहट अभी सतह पर नहीं आयी थी, किंतु प्रबुद्ध और जागरुक समाज इसकी दस्तक की अनुभूति कर रहा था। स्वतंत्रता की देवी का आह्वान करने हेतु, उसके पुजारी निखिल भारत में विभिन्न स्थानों पर यज्ञ आरंभ कर चुके थे। उसमें वीरों के उष्ण रक्त और मांस-मज्जे की आहुतियाँ भी दी जाने लगी थी। किंतु इसमें एक बड़ी बाधा थी, संपूर्ण भारतवर्ष में संचार और संपर्क की एक भाषा का नहीं होना। स्वतंत्रता संदिग्ध बनी रहेगी। दक्षिण भारत के नागरिक, उत्तर की भाषा समझने में असमर्थ हैं। और उत्तर के लोग दक्षिण की। यही स्थिति पूरब और पश्चिम की भी थी। देश के दूसरे प्रांतों में क्या हो रहा है? कैसे अपनी बात पहुँचाई जाये? कैसे संपूर्ण भारत के स्वतंत्रता के पुजारी एक हों और अपनी-अपनी योजनाओं से एक दूसरे को अवगत करायें, मिलकर कार्य करें, यह अत्यंत दुरुह सिद्ध हो रहा था। 'संस्कृत', जो अदास भारत की सर्वजनीन भाषा थी, सिमट कर मात्र धार्मिक उत्सवों और कर्म-कांड की, पौरोहित्य की भाषा भर रह गयी थी। सभी जागरूक देशवासियों को संभवतः पहली बार संस्कृत की कमी इतने व्यापक रूप में खली होगी। ऐसे ही जागरूक भारतीयों ने गहन विचार-विमर्श के पश्चात् यह निर्णय किया कि, संपूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में जोड़ने के लिये उत्तर भारत के एक वृहत् क्षेत्र में बोली जा रही भाषा 'हिन्दी' को राष्ट्र की एक संपर्क-भाषा के रूप में विकसित किया जाये। और, इसके राष्ट्र-व्यापी प्रचार, प्रसार और प्रशिक्षण की सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ सुनिश्चित की जायें। साथ ही स्वतंत्रता और हिन्दी, दोनों का कार्य साथ-साथ चले।

सन् १९०९ में इसी महान उद्देश्य के निमित्त अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई। इस महान कार्य में, महामना पं० मदनमोहन मालवीय, राजर्षि पुरुषोतमदास टंडन आदि राष्ट्र-भक्त हिन्दी सेवी महापुरुषों का विशेष योगदान था। अखिल भारत वर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का उसकी स्थापना के वर्ष से ही प्रत्येक वर्ष अलग-अलग प्रांतों में अधिवेशन आयोजित किया जाता था। स्वाभाविक रूप से गैर-हिन्दी-भाषी प्रदेश, सम्मेलन की उच्च प्राथमिकता में थे। दक्षिण भारत ने भी इसकी आवश्यकता और महत्त्व को समझा और पूरी हार्दिकता के साथ न केवल इसका स्वागत किया, बल्कि अनेकशः दक्षिण भारतीय लोग हिन्दी के प्रचार-प्रसार और उन्नति के कार्य में सक्रिय योगदान देने लगे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही कतिपय राजनैतिक कारणों से वहाँ हिन्दी के प्रति सद्भावना में कमी आयी। यह एक अलग संदर्भ है, जिस पर इस लेख में चर्चा अप्रासंगिक है।
सन् १९१९ में सम्मेलन का १०वाँ अधिवेशन बिहार प्रांत में सुनिश्चित हुआ था। उस समय हिन्दी साहित्य से जुड़े कुछ नौजवानों के मन में यह विचार आया कि प्रदेश में भी सम्मेलन के प्रांतीय सम्मेलन का गठन किया जाना चाहिये। इनमें प्रमुख थे भगवानपुर (मुजफ्फरपुर) के प्रतिष्ठित विद्वान श्रीयुत वासुदेव नारायण के पुत्र श्री रामधारी प्रसाद, जिन्हें सम्मेलन की स्थापना का सूत्रधार भी कहा जा सकता है। इसकी प्ररेणा उन्हें इस सूचना से भी मिली कि, जिस-जिस प्रदेश में साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ था, वहाँ प्रांतीय सम्मेलन की स्थापना कर ली गयी थी। इन उत्साही नौजवान साहित्यकारों और साहित्य-प्रेमियों ने इस हेतु अनेक वरीय कनीय साहित्यकारों से संपर्क किया। किसी ने हतोत्साति किया तो किसी ने प्रोत्साहित भी। प्रतिबद्ध नौजवानों ने इस सिलसिले में राजेन्द्र बाबू (भारत के प्रथम राष्ट्रपति देश-रत्न डा० राजेन्द्र प्रसाद) से भी पत्र द्वारा संपर्क साधा। राजेन्द्र बाबू तबतक अखिल भारतवर्षीय साहित्य सम्मेलन से जुड़ चुके थे, और उन्हीं के प्रयास से, मुंबई में महामना पं० मदनमोहन मालवीयजी के सभापतित्व में सम्पन्न हुए ९वें अधिवेशन में स्वीकृति प्राप्त कर, बिहार में सम्मेलन का १०वाँ अधिवेशन आयोजित किया गया था। अधिवेशन की तैयारी तथा स्वागत-समिति के गठन के कार्य हेतु, राजेन्द्र बाबू ने बेतिया से श्री पीर मुहम्मद मूनिस को पटना बुलया था। पटना से लौटने के क्रम में श्री मूनिस, वासुदेव बाबू से मिलने आये थे। यहीं चर्चा के क्रम में श्री प्रसाद ने प्रांतीय सम्मेलन के गठन का प्रस्ताव रखा था।

यह बात दोनों उदारात्माओं को पसंद आयी। और उन्होंने इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। इस कार्य-नेक में दूसरे उत्साही नौजवान, जो श्री प्रसाद के मित्र भी थे और प्रतिभावान कवि भी, श्री राघव प्रसाद सिंह, बहुत सहायक सिद्ध हुए। राजेन्द्र बाबू ने नौजवानों का उत्साहवर्द्धन किया और इस हेतु उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित किया। इस कार्य में, जी.बी.बी. कॉलेज के हिन्दी अध्यापक श्रीयुत लक्ष्मीनारायण सिंह, बी.बी. कॉलेजियेट स्कूल के अध्यापक श्री मथुराप्रसाद दीक्षित, म्युनिसिपैलिटि के तत्कालीन चेयरमैन बाबू बैद्यनाथ प्रसाद सिंह (स्थापना के सभी व्यय-भार इन्होंने ही उठाया था), अधिवक्ता बाबू लक्ष्मीनारायण, पीर मुहम्मद मूनिस, लतीफ हुसैन नटवर तथा पं. दर्शन केशरी पांडे जी की उल्लेखनीय भूमिका थी। इन सबके अथक प्रयास के बाद अंततः मुजफ्फरपुर के हिन्दू भवन के हाते में १९ अक्टूबर, १९१९ को, श्रीयुत जगन्नाथ प्रसाद एम.ए.बी.एल. काव्यतीर्थ के सभापतित्व में, हिन्दी-सेवियों और हिन्दी-प्रमियों की एक सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना का निर्णय किया गया। इसी बैठक में यह भी निर्णय किया गया कि सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन, मुजफ्फरपुर जिला की ओर से, सोनपुर मेले के अवसर पर ८-९ नवम्बर को आयोजित किया जाये। ११ सदस्यों की एक कार्य-समिति का भी गठन लिया गया, जिसके हिस्से स्वागत समिति का कार्य भी आया। स्वागत समिति के अध्यक्ष बनाये गये श्रीयुत वैद्यनाथ प्रसाद सिंह और प्रधान मंत्री हुए श्री मथुराप्रसाद दीक्षित। आगे चलकर फिर अधिवेशन के लिये, मलयपुर (मुंगेर) निवासी और 'हास्यरसवतार' के रूप में ख्यात पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी को सभापति बनाया गया था। इस प्रकार बिहार हिन्दी सात्यि सम्मेलन का स्वरूप प्रकट हुआ। प्रत्येक अधिवेशन में स्थायी समिति (तब की कार्य-समिति) का गठन किया गया था, जो अगले अधिवेशन तक सम्मेलन का कार्य संचालित करती थी।
अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन की तर्ज पर, बिहारी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रत्येक वर्ष अलग-अलग जिलों में अधिवेशन होने लगे, जिनमें प्रदेश के सभी नामचीन साहित्यकारों एवं साहित्य-प्रेमियों की उपस्थिति होती थी, जिनमें राजेन्द्र बाबू (भारत के प्रथम राष्ट्रपति), बिहार के प्रथम प्रधान मंत्री/ मुख्यमंत्री डा. श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, प्रथम शिक्षा मंत्री और यशस्वी पत्रकार बदरी प्रसाद वर्मा, डॉ. लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिंह, बाबू गंगा शरण सिंह, पं. जनार्दन प्रसाद झा, 'द्विज' के नाम प्रमुख रूप से शामिल हैं।

आरंभ में सम्मेलन का कोई कार्यालय नहीं था। कोई मंत्री, जो अपने घर में स्थान उपलब्ध करा देता था, वहीं सम्मेलन का कार्य चलाया जाता था। सम्मेलन के प्रथम सभापति (स्वागताध्यक्ष) श्रीयुत वैद्यनाथ प्रसाद सिंह (मुजफ्फरपुर नगरपालिका के तत्कालीन अध्यक्ष) के प्रयत्न और सहयोग से, मई १९२१ में मुजफ्फरपुर में एक छोटा-सा मकान किराये पर ले लिया गया, जिसमें कार्यालय चलने लगा। इसी में सम्मेलन का पुस्तकालय भी आरंभ किया गया। वैद्यनाथ बाबू के प्रयत्न से, नगर की पुरानी संस्था हिन्दी भाषा प्रचारणी सभा, जो मृतप्राय हो गयी थी, की कुल पुस्तकें और फर्निचर सम्मेलन को प्राप्त हो गये। और इस प्रकार सम्मेलन की वास्तविक उन्नति का कार्य आरंभ हुआ।

बिहार हिन्दी साहित्य के स्वरूप में नया और ऐतिहासिक मोड़ तब आया, जब सन् १९३६ में पूर्णिया में आयोजित सम्मेलन के त्रयोदश अधिवेशन में प्रसिद्ध विद्वान् और हिन्दी संसार के सुपरिचित साहित्यकार पं. छविनाथ पांडेय सम्मेलन के प्रधान मंत्री बनाये गये। पांडेय जी के परामर्श पर, इसी अधिवेशन में सम्मेलन का कार्यालय पटना में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया। 'सर्चलाइट' के तत्कालीन यशस्वी संपादक श्री मुरलीमनोहर मिश्र के प्रयत्न से बिहार सरकार के तत्कालीन मंत्री श्री अजीज साहेब ने अपने एक्जिबिशन रोड वाले मकान में एक कमरा दे दिया था। उसी से सम्मेलन का कार्यालय स्थापित किया गया। प्रदेश में अंतरिम सरकार बन चुकी थी। डा. श्रीकृष्ण सिंह प्रधान मंत्री थे (तब राज्य सरकारों के मुख्यमंत्रियों को भी प्रधानमंत्री ही कहा जाता था)। मंत्रिमंडल में अनेक मंत्री ऐसे थे, जो साहित्य सम्मेलन से पूर्व से ही आंतरिक रूप से जुड़े हुए थे तथा इसमें पूरी श्रद्धा रखते थे। छविनाथ पांडेय जी ने सम्मेलन के लिये भूमि आवंटन हेतु राज्य सरकार के समक्ष प्रस्ताव रखा। यह सबके अनुकूल विचार था। इस दिशा में कार्य आरंभ हुआ। तत्कालीन अधिकारियों, खास महल के पदाधिकारी पंचानंद सिंह, पटना के मजिस्ट्रेट रायबहादुर विसुन देव नारायण सिंह तथा पटना के आयुक्त के निजी सचिव श्री रामप्रसाद शाही ने भी सहयोग किया और कदमकुआँ में भू-खंड उपलब्ध हुआ। इसी भूमि पर भवन निर्माण हेतु, बनैली के उदारमना और साहित्य-संस्कृति प्रेमी राजा बहादुर श्री कीर्त्यानंद सिंह के एक-मुश्त दस हजार रुपये के सहयोग से कार्य आरंभ हुआ। अन्य महानुभावों के सहयोग से ५ हजार रुपये की राशि भी प्राप्त हुई थी। सन् १९४२ के आंदोलन में सक्रिय रहने के कारण पं. छविनाथ पांडेय गिरफ्तार कर लिये गये। इससे निर्माण कार्य बाधित हुआ। सन् १९४६ में बौंसी अधिवेशन में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मेलन के प्रधान मंत्री चुने गये। उन्होंने इस नेक कार्य को आगे बढ़ाया। इसमें राज्य सरकार की ओर से तीन किश्तों में ७२ हजार ५ सौ रुपये की राशि प्राप्त हुई थी। और इस प्रकार सन् १९३८ से भवन-निर्माण का आरंभ हुआ कार्य सन् १९५१ में पूरा हुआ। इसमें सम्मेलन के पदाधिकारियों और साहित्यकारों ने भी हर प्रकार का सहयोग किया, जिसमें श्रमदान भी सम्मिलित था।

सम्मेलन से हिन्दी साहित्य के विश्रूत संपादक और साहित्यकार आचार्य शिवपूवजन सहाय और हिन्दी समालोचना के शलाका-पुरुष आचार्य नलिनविलोचन शर्मा सक्रियता से जुड़ गये थे। नवस्थापित बिहार राष्ट्र भाषा परिषद का कार्यालय सम्मेलन भवन में ही आरंभ हुआ था। सहाय जी उसके संस्थापक मंत्री थे तथा सम्मेलन भवन में ही सपरिवार रहा करते थे। नलिन जी सम्मेलन के साहित्य मंत्री थे। सम्मेलन की शोध-पत्रिका 'साहित्य' का प्रकाशन आरंभ हो चुका था, जिसकी ख्याति संपूर्ण भारतवर्ष में फैल चुकी थी। यह साहित्य सम्मेलन का स्वर्णिम काल था। देश के बड़े-बड़े साहित्यकार, सरस्वती के इस मंदिर में, तीर्थ की भावना के साथ आते थे। मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना 'कामायनी' के रचनाकार जयशंकर प्रसाद जैसे साहित्यकार और कविगण अपनी रचनाओं को प्रकाशन के पूर्व, इन आचार्यों से दिखा लेना जरूरी समझते थे। विदुषी महिला और आचार्य शिवपूजन सहाय की दिवंगता धर्मपत्नी श्रीमती बच्चन देवी की स्मृति में नियमित अंतराल पर 'बच्चन देवी गोष्ठी' आयोजित होती थी। उसमें देश भर के विद्वान भाग लेते थे। व्याख्यान होते थे। सम्मेलन के सभी विभाग अपने-अपने कार्य में प्रशंसा अर्जित कर रहे थे। कला और संगीत के प्रशिक्षण के कार्य संचालित होते थे। हिन्दी के अतिरिक्त देश की लोक-भाषाओं, विशेषकर दक्षिण की भाषाओं की पढ़ाई भी होने लगी थी। विभिन्न स्थानों पर हिन्दी की पढ़ाई के लिए सम्मेलन से शिक्षक भेजे जाते थे। प्रतियोगिताएँ एवं परीक्षाएँ आयोजित होती थीं। उपाधियाँ प्रदान की जाती थी।, वह सब कुछ हो रहा था, जिसके लिये सम्मेलन की स्थापना की गयी थी, और जो इसके उद्देश्यों में सम्मिलित किए गए थे।
कालांतर में धीरे-धीरे, इसकी स्वर्णिम आभा मंद पड़ने लगी। भारत और हिन्दी के आकाश में, बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उदित सूर्य का अवसान दिखने लगा था। शताब्दी का अंतिम दशक आते-आते इसकी दिव्यता और प्रभा समाप्तप्राय हो गयी। यहाँ वह सब कुछ होने लगा, जिसे साहित्य और मनुष्यता की परिभाषा में, निषिद्ध माना जाता है।
नयी शताब्दी (२१वीं सदी) का दूसरा दशक पुनः अपना इतिहास दुहराने के लिये कटिबद्ध हुआ है। सम्मेलन के लिये, अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले, महात्मा-सदृश, सभी दिवंगत साहित्यकारों की आत्माएँ चीख-चीख कर, साहित्य का अलख जगानेवाली, नयी पीढ़ी का कातर स्वर में आह्वान कर रही है; सरस्वती के इस मंदिर को बचा लेने के लिये। दिवंगत साहित्यकारों की आत्माएँ उन्हें कभी माफ नहीं कर सकतीं, जिन्होंने इस मंदिर को अपवित्र किया तथा इस पाप में भागी हुए।
सच्चे और अच्छे साहित्यकारों और सहित्यप्रेमियों ने पुनः प्रज्ञा की देवी सरस्वती को जगाने के लिये, नयी वेदी बनाकर यज्ञ आरंभ किया है, जिसमें निरंतर समिधा दी जा रही है। हम नये स्वर्णिम इतिहास की नींव पड़ते देख रहे हैं। अब साहित्य-समाज किसी रावण, किसी महिषासुर या किसी भस्मासुर को देवी के अपमान का अवसर नहीं देगा। हम आशावान् हैं कि शीघ्र ही वे दिन वापस होंगे, जिसके लिये बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्पूर्ण भारतवर्ष में तीर्थ-सा आदर पाता था

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन

सम्मेलन ने सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में इस संस्था ने स्वाधीनता सेनानियों और राष्ट्रप्रेमी कवियों का समर्थन किया, जिससे यह साहित्यिक मंच एक आंदोलन का रूप लेने लगा। इसके माध्यम से साहित्य और देशभक्ति के विचार एक साथ उभरकर सामने आए, जिससे जनता में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ।

आधुनिक समय में भी, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। डिजिटल युग में इस संस्था ने अपनी गतिविधियों को ऑनलाइन मंचों पर स्थानांतरित किया है, जिससे युवा पीढ़ी के बीच इसकी लोकप्रियता और प्रभाव बना रहा। साहित्यिक सामग्री का डिजिटल प्रकाशन, वर्चुअल साहित्यिक बैठकों का आयोजन, और हिंदी भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन ने तकनीकी प्रगति को अपनाया।

सम्मेलन के कई प्रमुख योगदानों में हिंदी भाषा की मानक लिपि के विकास और उसे संरक्षित करने के प्रयास शामिल हैं। इसने हिंदी व्याकरण और साहित्य के अध्ययन के लिए कई महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित किए हैं, जो आज भी विद्वानों और विद्यार्थियों के लिए संदर्भ सामग्री के रूप में काम आते हैं। सम्मेलन का प्रयास रहा है कि हिंदी भाषा का साहित्यिक गौरव हमेशा ऊँचा रहे।

आज के समय में, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन केवल एक संस्था नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जो अपने इतिहास और परंपरा को जीवंत रखते हुए साहित्य और भाषा के क्षेत्र में नई ऊँचाइयों को छू रहा है। यह साहित्यिक मंच न केवल बिहार बल्कि पूरे भारत में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम और सम्मान का प्रतीक बन गया है।