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४३ वें महाधिवेशन

४३ वें महाधिवेशन में सम्मेलन अध्यक्ष का अभिभाषण

बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के १०६ठे स्थापना दिवस समारोह एवं ४३वें महाधिवेशन (१९-२० अक्टूबर,२०२४) में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ का अभिभाषण !

बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक प्रांगण और सभागार में, सम्मेलन के 106ठे स्थापना दिवस समारोह एवं 43वें महाधिवेशन के सम्मानित उद्घाटनकर्ता और झारखण्ड उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा महानदी जल-विवाद न्यायाधिकरण के माननीय सदस्य न्यायमूर्ति डा रवि रंजन जी ! मुख्य अतिथि और भारत सरकार में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रलय में माननीय मंत्री श्री जीतन राम माँझी जी! स्वागत-कारिणी समिति के माननीय अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार, लोकप्रिय समाजसेवी, सफल उद्यमी और पूर्व सांसद विद्यावाचस्पति डा रवींद्र किशोर सिन्हा जी! हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष और विश्रुत-विद्वान प्रो सूर्यप्रसाद दीक्षित जी, सभी समादरणीय विशिष्ट अतिथिगण, सम्मेलन की कार्यसमिति और स्वागत समिति, जिनके कंधे पर यह महामहोत्सव आरूढ़ है, के सभी अधिकारी एवं सदस्यगण एवं भारत के विभिन्न रमणीय वंदनीय स्थलों से पधारे वाग्देवी की आराधना में लिप्त विदुषी देवियों और विद्वान सज्जनों!

देश की आत्मा की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति और हमारी महान अभिलाषा राष्ट्रभाषा-हिन्दी के हिताकांक्षी आप सभी वाग्देवी के सेवक-सेविकाओं को एक साथ इतनी बड़ी संख्या में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इस ऐतिहासिक परिसर में उपस्थित देखकर मेरा हृदय आह्लाद के अतिरेक से कंपित हो रहा है। मुझे कहने की इच्छा हो रही है कि आप सभी सरस्वती पुत्रों और माता की प्रतिकृति के रूप में शोभायमान भगिनियों का यह विराट समागम राष्ट्रभाषा की विश्वव्यापी स्वरूप ग्रहण करने की पुलकनकारी संकेत है। मैं गद्गद कंठ से आप सबका,वाग्देवी के इस मंदिर में अभिनन्दन करता हूँ। आप सबके समादर में स्नेह की पुष्प-पंखुरियाँ अर्पित करता हूँ।

हृदय को आनंदित करने वाले इस महनीय अवसर पर, आज मैं जो कुछ भी निवेदन करूँगा, उनमे से प्रायः सभी विचारणीय बिंदुओं से आप सभी अवगत ही हैं। मैं मानता हूँ कि इस विषय में आप सबका ज्ञान, आपकी साधना और आपका अवदान मुझ से श्रेष्ठ ही है। इसलिए मैं जो कुछ भी निवेदन करूँगा, वह हिन्दी के प्रति मेरा प्रेम और आप सब द्वारा मुझे सौंपे गए कर्तव्य की अभिव्यक्ति मात्र होगी। अपने सीमित ज्ञान के आधार पर मैं अवश्य यह चेष्टा करूँगा कि आपको तृप्त करूँ, किंतु इसके पूर्व मैं गत अधिवेशन के पश्चात हमारा साथ छोड़ गए उन विभूतियों के प्रति अपना श्रद्धा-भाव अर्पित न करूँ तो वह मनुष्यता के कर्तव्य से मुख मोड़ने जैसा पाप-कृत्य होगा। कुछ पल का आप अवश्य अवकाश दें कि उन दिव्यात्माओं के चरणों में अपनी श्रद्धा के कुछ अश्रु-बूँद अर्पित कर सकूँ, जिन्होंने हिन्दी के लिए स्तुत्य अवदान दिए।

उन सब पर जब मेरी मनो दृष्टि जाती है, तो सबसे पहले, महान कथा-लेखिका डा उषा किरण खान की दिव्य और मनोहर छवि हमारे मानस-पटल पर अंकित हो जाती है। उषा जी हिन्दी-कथा-साहित्य में न केवल एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती रही हैं, अपितु महिला-लेखन की प्रेरणा भी मानी जाती रही हैं। पद्म-अलंकरण से विभूषित उषा जी का व्यक्तित्व अत्यंत कर्षक और उत्प्रेरक था। उनके निधन से हिन्दी-कथा-लेखन,विशेषकर स्त्री-विमर्श को अपूरणीय क्षति पहुँची है।

सम्मेलन के अर्थमंत्री के रूप में अत्यंत मूल्यवान सेवा देने वाले कवि श्री योगेन्द्र प्रसाद मिश्र का भी निधन विगत २६ फरवरी, २०२४ को हो गया। उनकी कर्मठता, अविराम-लेखन, साहित्य, सम्मेलन और साहित्यकारों के प्रति उनकी श्रद्धा और निष्ठा अनुकरणीय है।

मैं इन सभी पुण्यात्माओं के प्रति श्रद्धा-तर्पण देता हूँ!

साहित्य सम्मेलन का गौरवशाली १०५ वर्ष !

हम अवगत हैं कि सम्मेलन की स्थापना १९ अक्टूबर, १९१९ को, देश-रत्न डा राजेंद्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति) की प्रेरणा से बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर नगर में हुई थी।

आज हमें सम्मेलन के उन सभी महान पुरोधा पूर्वजों और अग्रजों की विनम्र स्मृति हो रही है, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी को अपनी गोद में खेलाते-हँसाते जवान किया और अपनी सिद्ध लेखनी से उसका केश-विन्यास कर, विविध सुगंधित अंगरागों और अलकरणों ऋंगार कर सौंदर्यवती और गुणवती बनाया। यह हमारे उन्हीं महान हिन्दी-तपस्वियों और ऋषिकाओं की साधना का फलित है कि हमारी हिन्दी केवल भारतवर्ष की ही नहीं, विश्व का कंठ-हार बन गई है। ८-९ नवमबर, १९१९ को सोनपुर मेले में संपन्न हुए, सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के सभापति हास्य रसावतार के रूप में सुख्यात विद्वान पं जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी सहित वे सभी पूर्ववर्ती सभापति/अध्यक्ष; शैली-सम्राट के रूप में आदरणीय राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, संस्कृत और हिन्दी के मनीषी विद्वान श्री शिवनन्दन सहाय, पं सकल नारायण शर्मा, पं चंद्रशेखरधर मिश्र, राजाबहादुर कीर्त्यानंद सिंह, देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति), आचार्य बदरीनाथ वर्मा, रायबहादुर रामरणविजय सिंह, स्वामी भवानी दयाल संन्यासी, डा काशी प्रसाद जायसवाल, पं जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज', श्री यशोदानंद अखौरी, श्री ब्रजनंदन सहाय'ब्रजवल्लभ', श्री पीर मुहम्मद मूनिस, पं राहूल सांकृत्यायन, आचार्य शिवपूजन सहाय, श्री मनोरंजन प्रसाद सिंह, सम्मेलन की स्थापना के मुख्य सूत्रधार श्री रामधारी प्रसाद 'विशारद' , पं जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, डा लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु', कलम के जादूगर श्री रामवृक्ष बेनीपुरी, पं छविनाथ पाण्डेय, आचार्य देवव्रत शास्त्री, आचार्य मथुरा प्रसाद दीक्षित, महाकवि मोहन लाल महतो 'वियोगी', श्री ब्रज शंकर वर्मा, १९२५ में सोनपुर में हुए विशेष अधिवेशन के सभापति श्री साँवलिया बिहारीलाल वर्मा एवं २४ फरवरी १९५६ में हुए, सम्मेलन के रजत जयंती समारोह के सभापति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' श्रद्धा से स्मरण होते हैं, जिन्होंने अधिवेशनों में अपने अध्यक्षीय उद्गारों से, हिन्दी की तत्कालीन स्थिति और उसकी आगे की संभावनाओं का बहुआयामी चित्र रखते रहे हैं।

आज हमें सम्मेलन के उन सभी महान पुरोधा पूर्वजों और अग्रजों की विनम्र स्मृति हो रही है, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी को अपनी गोद में खेलाते-हँसाते जवान किया और अपनी सिद्ध लेखनी से उसका केश-विन्यास कर, विविध सुगंधित अंगरागों और अलकरणों ऋंगार कर सौंदर्यवती और गुणवती बनाया। यह हमारे उन्हीं महान हिन्दी-तपस्वियों और ऋषिकाओं की साधना का फलित है कि हमारी हिन्दी केवल भारतवर्ष की ही नहीं, विश्व का कंठ-हार बन गई है। ८-९ नवमबर, १९१९ को सोनपुर मेले में संपन्न हुए, सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन के सभापति हास्य रसावतार के रूप में सुख्यात विद्वान पं जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी सहित वे सभी पूर्ववर्ती सभापति/अध्यक्ष; शैली-सम्राट के रूप में आदरणीय राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, संस्कृत और हिन्दी के मनीषी विद्वान श्री शिवनन्दन सहाय, पं सकल नारायण शर्मा, पं चंद्रशेखरधर मिश्र, राजाबहादुर कीर्त्यानंद सिंह, देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद (भारत के प्रथम राष्ट्रपति), आचार्य बदरीनाथ वर्मा, रायबहादुर रामरणविजय सिंह, स्वामी भवानी दयाल संन्यासी, डा काशी प्रसाद जायसवाल, पं जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज', श्री यशोदानंद अखौरी, श्री ब्रजनंदन सहाय'ब्रजवल्लभ', श्री पीर मुहम्मद मूनिस, पं राहूल सांकृत्यायन, आचार्य शिवपूजन सहाय, श्री मनोरंजन प्रसाद सिंह, सम्मेलन की स्थापना के मुख्य सूत्रधार श्री रामधारी प्रसाद 'विशारद' , पं जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, डा लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु', कलम के जादूगर श्री रामवृक्ष बेनीपुरी, पं छविनाथ पाण्डेय, आचार्य देवव्रत शास्त्री, आचार्य मथुरा प्रसाद दीक्षित, महाकवि मोहन लाल महतो 'वियोगी', श्री ब्रज शंकर वर्मा, १९२५ में सोनपुर में हुए विशेष अधिवेशन के सभापति श्री साँवलिया बिहारीलाल वर्मा एवं २४ फरवरी १९५६ में हुए, सम्मेलन के रजत जयंती समारोह के सभापति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' श्रद्धा से स्मरण होते हैं, जिन्होंने अधिवेशनों में अपने अध्यक्षीय उद्गारों से, हिन्दी की तत्कालीन स्थिति और उसकी आगे की संभावनाओं का बहुआयामी चित्र रखते रहे हैं।

दुर्भाग्य से बाद के वर्षों में दशकों तक अधिवेशन नहीं किए जा सके, जिसके कारण बाद के अध्यक्षों परम आदरणीय आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा, डा विष्णु किशोर झा 'बेचन' और पं जगदीश पाण्डेय जी के विचारों से हम वंचित रह गए। सम्मेलन की स्थापना के १०० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इस ग्रंथ का दूसरा संस्करण, (परवर्ती अध्यक्षों के अभिभाषणों के साथ) परिवर्द्धित रूप में, विगत महाधिवेशन के अवसर पर प्रकाशित हुआ है, जिसका श्रम-साध्य संकलन और संपादन सम्मेलन के विद्वान प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय जी ने किया है। एक हज़ार आठ पृष्ठों का यह महनीय ग्रंथ, सही अर्थों में बिहार में ही नहीं भारतवर्ष में हुई हिन्दी की प्रगति का संपूर्ण परिचय देता है। ऐतिहासिक महत्त्व का यह ग्रंथ हिन्दी के सुधी पाठकों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों और आचार्यगण को भी लाभान्वित कर रहा है।

सम्मेलन के गौरवशाली सौ वर्षों का सूक्ष्म-अवलोकन भी पर्याप्त समय और स्थान लेगा इसमें भी संशय नहीं। इसलिए एक विहंगम दृष्टि डालते हुए हम आगे बढ़ना चाहेंगे। शेष के लिए, विद्वान पाठकों को 'बिहार की साहित्यिक प्रगति' तथा 'साहित्य सम्मेलन का इतिहास' का पारायण करना चाहिए। सम्मेलन के इतिहास का प्रकाशन भी स्वर्णजयंती समारोह के अवसर पर किया गया था, जिसकी कुछ ही प्रतियाँ शेष होंगी। हम इसका परिष्कृत और परवर्ती योग के साथ इसका प्रकाशन शीघ्र करेंगे।

जब हम सम्मेलन के पूर्ववर्ती अध्यक्षों के उद्गारों और विचारों से होकर वर्तमान काल की हिन्दी को देखते हैं, तो अपने पूर्वज और अग्रज साहित्यकारों के प्रति हमारा हृदय अत्यंत ही श्रद्धा से भर उठता है। आधुनिक हिन्दी अपने शैशव-काल से युवा होने तक और फिर देशव्यापी से विश्वव्यापी होने की अपनी महान यात्रा किस प्रकार पूरी की और हमारे पूर्वजों ने कैसी-कैसी कठिनाइयाँ झेलीं, कैसी कड़ी साधना की और किस प्रकार अपना सर्वस्व न्योक्षावर कर, माता भारती को प्रसन्न किया,यही कथा, सम्मेलन की कथा है। यह कथा संक्षिप्त रूप में, सम्मेलन के गत अधिवेशन के अवसर पर प्रकाशित 'सम्मेलन साहित्य' के महाधिवेशन विशेषांक के अध्यक्षीय संबोधन में पाठकों को प्राप्त होगी। इस आलेख में उसकी पुनरावृति अनुचित मानी जाएगी। इसलिए आप सबसे पत्रिका के गत विशेषांक के अवलोकन का आग्रह करूँगा।

साहित्य सम्मेलन और बिहार के हिन्दी सेवियों का अवदान

इस प्रसंग में भी, पुनर्रावृति से बचने और पृष्ठ-रक्षा के निमित्त मै विद्वान सज्जनों से 'बिहार की साहित्यिक प्रगति' के पारायण की विनम्र प्रार्थना करूँगा। किंतु इतनी बात अवश्य कहूँगा कि जिस प्रकार राजर्षि भगीरथ ने, गंगा अवतरण के लिए तप किया था, वही तप सम्मेलन के अधिकारियों और बिहार के नित्य प्रणम्य साहित्यकारों ने किया। तब जबकि एक प्रकार की शून्य की स्थिति थी। एक-एक ईंट जोड़कर हमारे मनीषी तपस्वियों ने हिन्दी का विशाल और विराट आगार बनाया, जिससे हिन्दी राष्ट्र के भाल की सुंदर बिन्दी बन पायी। जब उन दिनों के प्रसंग मानस-पटल पर आते हैं, तो देह का प्रत्येक रोम कंपित हो उठता है।

तब की परिस्थितियों और अब में युगांतरकारी परिवर्तन हुआ है। हिन्दी अपनी वैज्ञानिकता, अपने विशिष्ट गुणों, सौंदर्य-बोध और भाषा-लालित्य के कारण समग्र देश का कंठ-हार होती जा रही है। यह विपणन-व्यापार के लिए भी अनिवार्य सिद्ध हुई है।
हिन्दी के अमर साहित्यकारों की तपस्या के साथ-साथ इसे हिन्दी सिनेमा का भी सौजन्य प्राप्त हुआ। भाषा की लोकप्रियता बढ़ाने में निस्संदेह हिन्दी के फ़िल्मी गीतों का भी बड़ा योगदान है। आधुनिक तकनीक, अन्तर्जाल (इंटरनेट) और इससे उपजे अन्य संचार माध्यमों ने भी इसके प्रचार में उल्लेखनीय योगदान दिया है। किंचित भाषा-दोष अवश्य लक्षित हो रहे हैं, किंतु इससे प्रचार-प्रसार को व्यापक बल मिला है, इससे इनकार नहीं करना चाहिए। भाषा का परिमार्जन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। हम किंचित सचेत रहेंगे तो शीघ्र ही दोष-निवारण भी हो जाएँगे।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ७५ वर्ष की स्वतंत्रता के पश्चात भी, भले ही सरकार ने इसे वह मान-स्थान न दिया हो, जिसका संकल्प भारत की संविधान-सभा ने लिया था, फिर भी यह अपने महान अनुरागियों और जन-मन की अभिलाषा के बल पर निरन्तर और बड़ी द्रुत गति से बढ़ी और पसरी है। यदि हम संवैधानिक अड़चनों को दूर कर दें, तब इसकी हहराती गति को कोई शक्ति रोक नही पाएगी।

हिन्दी की संवैधानिक स्थिति

१४ सितम्बर, १९४९ को भारत की संविधान-सभा ने 'हिन्दी' को भारत सरकार के कामकाज की भाषा अर्थात 'राजभाषा' (राष्ट्र-भाषा नहीं) बनाने का निर्णय लिया। इसी दिवस की स्मृति में भारत के लोग, भारतवर्ष में 'हिन्दी-दिवस' मनाते हैं। किंतु यह शर्ताधीन निर्णय था। जिसके कारण अनेक विद्वान इसे 'छल' मानते हैं। क्योंकि संविधान-सभा के उक्त निर्णय के साथ दो दुर्भाग्यपूर्ण परंतुक भी जुड़े हुए थे। प्रथम परंतुक यह कि "अगले १५ वर्षों तक संघ के कामकाज की भाषा पूर्व की भाँति 'अंग्रेज़ी' ही बनी रहेगी। और दूसरा परंतुक यह कि - “ १५ वर्षों के पश्चात भारत की सरकार सदन में प्रस्ताव लाकर इस संबंध में यथोचित परिवर्तन करेगी।"
अर्थात हिन्दी के माथे पर भारत की सुहागन होने की बिन्दी तो लगा दी गई, बल्कि 'भाषा-महारानी' का मुकुट पहना दिया गया, पर उसे दी गई सारी शक्तियाँ छीन कर 'अंग्रेज़ी' को दे दी गई, जो विदेश की एक भाषा है और जिस भाषा ने इस देश को दास बनाए रखा और जिसके कारण आज भी देश बौद्धिक-दासता से ग्रस्त है। इस प्रसंग में भी आप सब से यही अनुरोध करूँगा कि पत्रिका के गत अंक का अवलोकन करने की कृपा करें।

अधिवेशन में चिंतन का मुख्य विषय:

“भारत की राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं पर इसका संभावित प्रभाव"

यह एक अत्यंत संवेदनशील, महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य रूप से चिंतनीय विषय है। आज जब भारत अपनी स्वतंत्रता का अमृत-महोत्सव मना चुका है, इस विषय पर सर्वाधिक गम्भीरता से विमर्श होना चाहिए। इसलिए कि अभी भी भारत की कोई एक राष्ट्र-भाषा नहीं है। कतिपय राजनैतिक लालसा रखने वाले स्वार्थी तत्त्व इस विषय को संकीर्ण रूप देकर टालते रहे हैं, और टालना चाहते हैं। इसे एक दूसरा रूप और रंग भी देते रहे हैं, देना चाहते हैं। इसलिए भी इस विषय पर पूरी पारदर्शिता के साथ विमर्श होना चाहिए।

सबसे पहले यह भ्रांति दूर की जानी चाहिए कि किसी एक भाषा को देश की राष्ट्र-भाषा बनाए जाने पर, देश की अन्य भाषाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। ऐसा विचार या भ्रांति रखने वाले लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि हमारे पड़ोसी देश चीन में भी अनेक भाषाएँ और बोलियाँ हैं, किंतु 'मनदारिन' वहाँ की राष्ट्र-भाषा है। 'मनदारिन' के कारण, वहाँ किसी भी अन्य भाषा की उपेक्षा नहीं हुई है।

दूसरी बात यह बतायी जानी चाहिए कि देश की एक राष्ट्र-भाषा होने से, पूरा देश भावनात्मक, रचनात्मक और वैचारिक आधार पर एक सूत्र में बंधेगा। सभी आपस में उचित और त्रुटि-हीन संवाद स्थापित कर सकेंगे। और इस प्रकार हम किसी विदेशी भाषा की दासता से भी बचेंगे, जो हमारे लिए आज भी वैश्विक-लज्जा का विषय बना हुआ है। यदि हम हिन्दी को राष्ट्र-भाषा घोषित कर चुके होते, और इस प्रकार संपूर्ण भारत वर्ष हिन्दी जानने, पढ़ने और आपस में संवाद करने वाला हो गया होता, तो हिन्दी आज संख्या की दृष्टि से विश्व की प्रथम भाषा होती। आज यह स्थान चीन को है, क्योंकि अनेक भाषाओं का देश होकर भी, 'मनदारिन' इस लिए संसार की प्रथम भाषा बनी हुई है, क्योंकि वह चीन की राष्ट्र-भाषा है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जिस राष्ट्र की अपनी भाषा (राष्ट्र-भाषा) नहीं होती, वह गूँगा ही रह जाता है। इस लिए यदि हम एक राष्ट्र हैं तो हमारी 'एक राष्ट्र भाषा' भी होनी चाहिए।
भारत एक संघीय राष्ट्र है। इसमें अनेक प्रांत हैं, जिनमे से अनेक की मातृ-भाषा हिन्दी न होकर कोई अन्य है। उन प्रांतों में, प्रांतीय सरकार की राजकीय भाषा उनकी मातृ-भाषा होनी चाहिए। और उन्हें यह भी चाहिए कि देश की राष्ट्र-भाषा को उचित सम्मान देते हुए, उसे प्रांत सरकार की दूसरी राजकीय भाषा घोषित करे। यदि सभी इस दृष्टि से विचार करेंगे तो इस विषय में कहीं कोई गति-रोध नहीं है।
जो लोग यह कहते हैं कि उन्हें हिन्दी सीखने का भारी बोझ उठाना होगा, यह उचित तर्क नहीं है। अंततः उन्हें अंग्रेज़ी भी तो सीखनी पड़ती है। देश का कोई भी एक स्थान नहीं है, जहाँ की मातृ-भाषा 'अंग्रेज़ी' हो! फिर यह एक विदेशी भाषा के प्रति इतना आग्रह क्यों? और हिन्दी के प्रति दुराग्रह क्यों? यह तो कम से कम अपने देश की भाषा है। इतनी आत्मीयता तो हममें होनी ही चाहिए।
और जो लोग यह कहते हैं कि 'अंग्रेज़ी' के विना हम ऊन्नति नहीं कर सकते, तो उन्हें, चीन, जापान, रूस, फ़्रांस, कोरिया आदि की ओर देखना चाहिए, जिन देशों ने अपनी राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीयता पर गर्व के साथ नए विश्व का इतिहास रचा है।
एक राष्ट्र-लिपि का भी यह तात्पर्य नहीं है कि 'देवनागिरी' के अतिरिक्त अन्य लिपियाँ समाप्त हो जाएँगी। बल्कि एक बड़ा लाभ यह होगा कि लिपि-विषमता के कारण, देश की अन्य भाषाओं को पढ़ने में जो व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती हैं, वह समाप्त हो जाएगी। यदि भारत की वे भाषाएँ जिनकी लिपि भिन्न है, यदि देवनागरी में भी लिखी जाए, तो देवनागिरी जानने वाले सभी भारतीय उन भाषाओं को भी सरलता से पढ़ सकेंगे, समझ सकेंगे और संवाद कर सकेंगे। इससे विभिन्न भाषाओं के महान-ग्रंथों के, अन्य भाषाओं में अनुवाद और प्रसार के भी मार्ग-प्रशस्त होंगे। अस्तु यह भी चिंतन का एक बड़ा विषय है, जिस पर विद्वानों ने अपने आलोखों में इसे स्पष्ट किया है। वैचारिक-सत्रों से भी इन विषयों पर प्रकाश पड़ेगा।

महाप्राण निराला और कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी

यह वर्ष आधुनिक हिन्दी के प्राण, महाप्राण पं सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और कलम के जादूगर के रूप में सुख्यात बिहार के साहित्यिक-गौरव रामवृक्ष बेनीपुरी का १२५वाँ जयन्ती वर्ष है। हिन्दी के इन दोनों ही महात्माओं का जन्म वर्ष १८९९ में हुआ था। एक का पश्चिम-बंगाल के मेदिनीपुर में (यद्यपि कि वे उत्तरप्रदेश के रहे) और दूसरे का बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिला-अंतर्गत बेनीपुर में। सम्मेलन ने अपने इस महाधिवेशन को इन्हीं साहित्यिक-महात्माओं की स्मृति को अर्पित किया है।
'निराला' का स्मरण होते ही मानस-पटल पर, वैदिक-काल के उन महान ऋषियों की छवि उभरती है, जिन्होंने भारतीय ज्ञान-परंपरा को प्राण दिए। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व, दोनों में ही निराले थे 'निराला'! छ्न्द के महान साधक और सिद्ध होकर भी स्वयं छ्न्दों को तोड़ा भी। एक नया छंद गढ़ा- 'मुक्त-छंद' ! बंधन-मुक्त ! निर्बाध, निष्कंप, झरने की बलखाती धारा की भाँति !
लोग समझते हैं कि निराला ने 'छंद-मुक्त' काव्य-सृजन की नींब डाली। यह भ्रांति है। निराला ने 'मुक्त-छंद' की रचना की। पारंपरिक छंदों की परिसीमा से बाहर निकल कर । किंतु उसमें नीरा गद्य की भाँति लय-ताल और गति-प्रवाह का अभाव नहीं है। उसमें नव-गति, नव-लय, ताल छंद-नव है। उनकी वाणी-वंदना की भाँति ! निराला को समग्रता से पढ़ कर ही उन्हें सम्यक् रूप से समझा जा सकता है। सम्मेलन-पत्रिका के महाधिवेशन-विशेषांक में अनेक विद्वानों के निराला और बेनीपुरी पर सुविस्तृत आलेख आए हैं। अस्तु निराला के चरणों में श्रद्धांजलि के दो शब्दों का मैं अपना कर्तव्य यहीं संपन्न कर, श्रद्धांजलि के दो शब्द-पुष्प बेनीपुरी जी के चरणों में भी रखना चाहूँगा। बेनीपुरी जी एक ऐसे विद्रोही-साहित्यकार थे जो अपनी तरुणाई से मृत्यु तक अपने सीने में,अग्नि का पोषण करते रहे। क्रांति और विद्रोह की एक ज्वाला उनके हृदय में सदा धधकती रही। उनके भीतर जल रही वही अग्नि उनकी लेखनी से ऐसे साहित्य का सृजन करती रही, जो न केवल स्वतंत्रता-आंदोलन के अमर सिपाहियों को ऊर्जा देता रहा, बल्कि साहित्य संसार का अनमोल धरोहर हो गया। वे एक महान क्रांतिकारी, अद्भुत प्रतिभा के साहित्यकार, प्रखर वक़्ता, मनीषी संपादक, दार्शनिक चिंतक, राजनेता और संघर्ष के पर्यायवाची व्यक्तित्व थे।
बेनीपुरी जी छात्र-जीवन में ही स्वतंत्रता-आंदोलन में कूद पड़े और उनकी तप्त लेखनी का मुँह अंग्रेज़ों और शोषक समुदाय के विरुद्ध खुल गया। परिणाम में जेल की यातनाएँ मिली। वे विभिन्न जेलों में लगभग ९वर्ष बिताए। किंतु जेल-जीवन को भी उन्होंने साहित्य का तपः-स्थली बना लिया। जब-जब जेल से निकले, उनके हाथों में अनेकों पांडुलिपियाँ होती थीं। 'पतितों के देश में', 'क़ैदी की पत्नी', 'ज़ंजीरें और दीवारें', 'गेहूँ और गुलाब' जैसी उनकी बहुचर्चित पुस्तकें जेल में ही लिखी गईं। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को अपनी विपुल लेखनी से समृद्ध किया, जिनमें नाटक, उपन्यास, काव्य, निबंध, आलोचना और साहित्यिक-संपादन सम्मिलित है। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। उनके ही कार्य-काल में सम्मेलन-भवन के निर्माण का कार्य पूरा हुआ। आज उनको स्मरण कर सम्मेलन अपना ऋण-भार का कुछ अंश चुका रहा है।

भारत की वैश्विक-दृष्टि और 'वसुधैव-कुटुम्बकम' की अवधारणा

यह विषय तो आदिकाल से भारतीय-समुदाय का प्रियतम विषय रहा है, जिसमें भारत की आदि भावना और शक्ति अभिव्यक्त होती आयी है। इस पर अनेक विद्वानों ने अपनी राय दी है और वैचारिक-सत्र में भी चर्चा करेंगे। मैं तो संक्षेप में यही कहना चाहूँगा कि भारत की यही दृष्टि और लोक-मंगल की भावना विश्व से कटुता दूर कर, संसार को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएगी। सारा विश्व इस एक मात्र सत्य और तथ्य को समझ ले भारत की ओर मुख करे, तो उसका भी मुख उज्ज्वल होगा और संसार में मानव-जाति के एकत्व और शांति की महान अवधारणा मूर्तमान होगी। तभी जगत का कल्याण संभव होगा। तभी पूरा विश्व 'एक कुटुम्ब' बनेगा। वह दिन अवश्य आएगा!
इसी मंगल-भावना के साथ, वाग्देवी के दिव्य चरण कमलों की वंदना करते हुए, आप सभी साधुजनों और विदुषी देवियों को सदर नमन करता हूँ।